Wednesday, January 25, 2012

पार्लिअमेंटरी डिबेट बनाम डेमोक्रेसी पे अटैक




सांसदों की मानसिकता कुछ यूं बन चुकी है कि वों पर्लिअमेंट में कुछ भी करे , वो सब ठीक है , और जनता अपने हक की बात करें तो सीख देने लगते है . हमारे माननीय सांसदों ने ये मान लिया है एक बार वो चुनाव जीत ले , फिर सांसद में कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र है . ये तो अच्छा हुआ की संसद की कार्यवाही का लाइव टेली कास्ट हो जाता है . अब जनता ये देख पा रही है कि हमारे माननीय संसद में जाकर किस किस तरह की हरकत कर रहें है . संसद में एक दूसरे पे कुर्सी फेकना , टेबल फेकना , हंगामा करना , पैसे लेकर वोट देना , विधेयक की कॉपी को फाड़ना , जनता के मुताबिक कानून नहीं बनाना , क्या इसी काम के लिया जनता सांसदों को चुनती है . सांसदों के अनुसार चुनाव में जीतने का मतलब तो ये है की अगले चुनाव तक वो जनता की छाती पर दाल मलने के लिए स्वतंत्र है . भारतीय जनतंत्र का माहौल ऐसा हो गया है की जनता उन्हें जनता का राज करने के लिए नहीं , अपितु जनता पे राज करने के लिए भेज रही .



अनेक सांसदों को ये बात पच नहीं रही है की जनता अपनी बात रखने के लिए आंदोलन भी कर सकती है . माननीय श्री लालू प्रसाद यादव सरीखे सांसदों को बात बड़ी अजीब लग रही है की एक छोटा सा आदमी सांसदों पर कानून बनाने के लिए दबाव डाल सकता है . इनकी हरकत देखकर ये नहीं लगता की कभी ये जय प्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति का हिस्सा रहें है .



इनकी बात माने तो संसद पर्लिअमेंट में डिबेट के नाम पर कोई भी हरकत कर सकते है , और अगर जनता अपनी बात रखने के लिए आंदोलन करती है तो ये उनके हिसाब से ये डेमोक्रेसी पे अटैक है . उनकी यही मानसिकता बन चुकी है :-



सांसद लड़े तो पार्लिअमेंटरी डिबेट और जनता कहे तो डेमोक्रेसी पे अटैक. 



माना की जनता उन्हें अपना प्रतिनिधी चुनती है ताकि सांसद  जनता के हित के अनुरूप कानून बनाए . इसका मतलब ये नहीं है की सांसद अपनी ईक्छा से कोई भी कानून बनाने के लिए स्वतंत्र है . महात्मा गाँधी , अम्बेडकर आदि ने प्रजातन्त्र की ये तस्वीर कभी नहीं सोची होगी . अपनी हरकत से सांसदों ने तो ये साबित किया है कि जनता उन्हें जनता का शासन करने के लिए नहीं , अपितु जनता पर शासन करने के लिए चुनती है . अगर संसद प्रजातन्त्र की गरिमा के अनुरूप कार्य नहीं करते है तो क्या ये जरूरी है की आम आदमी अपनी बात रखने के लिए चुनाव जीतकर हीं  संसद में जाए और अपनी बात रखे . अपने आंदोलनों के जरिये अगर जनता अपनी बात रखती है तो इसमें प्रजातंत्र पर आक्रमण कैसे कहा जा सकता है . बल्कि सही बात तो ये है ये सांसदों के तानाशाही प्रवृति पर चोट है . जनता का आंदोलन सांसदों को निरंकुश होने से बचाती है . जनता अपने आंदोलनों द्वारा प्रजातंत्र पर अटैक नहीं करती है , अपितु प्रजातंत्र को बचाती है .



अगर सांसद पर्लिआमेंट में डिबेट कर जनता की हितों के अनुरूप की कानून बनायें , तो जनता के आंदोलन का प्रश्न ही नहीं उठता. सांसदों के लिए क्या ही अच्छा होता की वो जनता पर शासन के बजाय जनता का शासन करने के बारे में सोचे .







अजय अमिताभ सुमन

उर्फ

बेनाम कोहड़ाबाज़ारी


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