Thursday, May 28, 2009

कवि बनने की कोशिश

कविता करने से कौन रोक रहा है यार ।
कविता लिखने का तुझे पुरा है आधिकार ।
ये भी है ठीक कि तेरे भीतर का कलाकार ।
जग रहा है ये जगना भी मुझे है स्वीकार ।
गिला बस इस बात का कि अंदरूनी कलाकार ।
कर रहा है बार बार , बार बार और लगातार ।
कविता कि आत्मा का ऐसा बलात्कार ।
जैसे कि रीन की सफेदी की चमकार ।
हर बार , बार बार , बार बार और लगातार ।




अजय अमिताभ सुमन
उर्फ़
बेनाम कोहडा बाजारी