Wednesday, March 16, 2011

दहेज के दानव













मैं एक बूढा हूँ रंजो गम का दामन हर दम सहता हूँ .

किसी के घर ना हो बेटी यही मौला से कहता हूँ .


मेरा आँगन था सुना पड़ा मुद्दत से उदासी थी
थी सुबह हर बंजर मेरी हर शाम बासी थी .


बड़ी मिन्नतें की घर में मैंने उजाले के वास्ते .
पीर , बाबा को गया , मौला के रास्ते .

बड़ी ख्वाहिशों के बाद मेरी बगिया भी चहकी थी .
खुदा तुमने बूढ़े के दामन में औलाद बख्शी थी .


हर सुबह की किरण नई पैगाम लाती थी .
मेरी बेटी आँगन में जब खिलखिलाती थी .


खुदा मेरे मुझे इस बात का बड़ा अफ़सोस था .
मेरी डाट से डरती थी इस बात का रोष था .


मेरी बेगम से ही वो खोलती थी ख्वाहिशों कि बात
सहमी बड़ी रहती थी मुझसे , था बुरा एहसास .


उम्र बेटी की मेरी ज्यों बढ़ती जाती थी .
ब्याह की चिंता मुझे मौला सताती थी .


साईकिल लेके बूढा मैं हर गली दर घुमा .
सुनकर दहेज की बात सर मेरा घुमा .


महीने भर जला के खून अपना जो पाता हूँ .
हज़ार सात रूपये में तो घर चलाता हूँ .


चपरासी मैं लाख रूपये कहाँ से लाता ?
सोच के ये बात मेरा , दिल था घबडाता .


दिन मेरे गुजर रहे थे मिन्नतें करते .
आस थी शायद किसी का भी दिल पिघले .


देख के मेरा यूँ झुकना औरों के सामने .
पूछती बेटी मेरी क्या जुर्म की थी बाप ने ?


फिर जुर्म से बाप को आजाद कर दिया .
मेरी बेटी ने आग में जल खाक कर दिया .


उसी आग को सिने मैं लेके दर दर जलता हूँ .
किसी के घर ना हो बेटी यही मौला से कहता हूँ .



अजय अमिताभ सुमन
उर्फ
बेनाम कोहड़ाबाज़ारी

घूँघट बीचे जरेली बहिनियाँ

घूँघट बीचे जरेली बहिनियाँ हमार हो

कहिया ले सहबु बहिन अईसन अत्याचार हो


टी.वी. मोटरसाईकिल खातिर लोग सब मरेला
फूल लेखां देहिया के तेल से जरावेला
सारा सुख छीनेला दहेज के बजार हो
घूँघट बीचे जरेली बहिनियाँ हमार हो


बेटिए के उजड़ेला घरवा दुअरवा
दुल्हन पर टूटेला विपति के पहाड़वा
गरभे में बेटिए के मरे संसार हो
घूँघट बीचे जरेली बहिनियाँ हमार हो


सोचअ बहिन सोचअ फुआ सोचअ बूढी माई
तहरे से भागी ई दहेजवा कसाई
झांसी के रानी बन ले ल अवतार हो
घूँघट बीचे जरेली बहिनियाँ हमार हो


“श्रीनाथ आशावादी” दरद सुनावेले
गऊंआ नगरिया में सबके बतावेले
जगीहें बहिनिया त होईहें उद्धार हो
घूँघट बीचे जरेली बहिनियाँ हमार हो




“श्रीनाथ आशावादी”