Saturday, January 10, 2009

हकीकत

हम सोच के बड़ा ये खुशगवार हो चले थे ।
बड़ी थी खुशफहमी , शिकार हो चले थे ।
मशरूफ जगह जीने कि, मुझको है मयस्सर ।
ये मान के बेफिक्र हम , हज़ार हो चले थे ।

छोटी छोटी हारों से दुखता था मेरा मन ।
छोटी छोटी बातों से टूटता था मेरा मन ।
छोटे तरीकों से , जीता जान लोगों से ।
खुदा का हज़ार शुक्रगुजार हो चले थे ।

ये जनता था नाम में , रखा कुछ भी नही ।
ये मानता था मान में , रखा कुछ भी नही ।
पर जीवन ये मेरा कि , नाम और शान पे ।
ख़ुद से खुश- नाराज , कई बार हो चले थे ।

मालूम न था गम के साये मुझपे भी छाएंगे ।
दुःख के बादल के छाये , मुझपे भी आएँगे ।
औरों को देखा रोते तो , खोली आँख थोडी ।
कि रोते लोगों से , दरकिनार हो चले थे ।

ये बीबी ये बच्चे , ये घर बार ये सपना ।
जाने किस किस को , समझा था मैं अपना ।
पर मौत के बिछावन से हुआ जब रु ब रु ।
ख़ुद ही ख़ुद से हम लाचार हो चले थे ।

देखता हूँ आंखों से , आँख पर नहीं हूँ मैं ।
सोंचता हूँ सांसों पे , नाक पर नही हूँ मैं ।
शरीर ने आख़िर में, छोड़ा जब ख़ुद का साथ।
बड़ी देर से इस सच के , दीदार हो चले थे ।



अजय अमिताभ सुमन

उर्फ
बेनाम कोहड़ाबाज़ारी