Saturday, December 27, 2008

रु ब रु



रोज उठकर सबेरे , नोट कि तलाश में .
चलाना पड़ता है मीलों , पेट कि खुराक में .

सच का दमन पकड़ के , घर से निकालता है जो .
झूठ कि परिभाषाओं से , गश खा जाता है वो .

बन गयी बाज़ार दुनिया , बिक रहा सामान है .
जो है ऊँची जगह पे , उतना ही बेईमान है .

औरों की बातें है झूठी , औरों की बातो में खोट .
और मिलने पे सड़क पे , छोडे न एक का भी नोट .

तो डोलते नियत जगत में , डोलता ईमान है .
और भी डुलाने को , मिल रहे सामान है .

औरतें बन ठन चली है , एक दुकान सजाए हुए .
जिस्म पे पोशाक तंग है , आग दहकाए हुए .

तो तन बदन में आग लेके , चल रहा है आदमी .
ख्वाहिशों की राख़ में भी , जल रहा है आदमी .

खुद की आदतों से अक्सर , सच ही में लाचार है .
आदमी का आदमी होना , बड़ा दुशवार है .



अजय अमिताभ सुमन
उर्फ
बेनाम कोहड़ाबाज़ारी